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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


विद्रोही मुंशी प्रेम चंद

उल्टे पाँव लौटा। अब तारा के आँगन से होकर जाने के सिवा दूसरा रास्ता न था। मैंने सोचा, इस जमघट में मुझे कौन पहचानता है, निकल जाऊँगा। लेकिन ज्योंही आँगन में पहुँचा, तारा की माताजी की निगाह पड़ गयी। चौंककर बोलीं, 'क़ौन, कृष्णा बाबू ? तुम कब आये ? आओ, मेरे कमरे में आओ। तुम्हारे चचा साहब के भय से हमने तुम्हें न्यौता नहीं भेजा। तारा प्रात:काल विदा हो जायगी। आओ, उससे मिल लो। दिन-भर से तुम्हारी रट लगा रही है।'
यह कहते हुए उन्होंने मेरा बाजू पकड़ लिया और मुझे खींचते हुए अपने कमरे में ले गयीं। फिर पूछा, 'अपने घर से होते हुए आये हो न ?'
मैंने कहा, 'मेरा घर यहाँ कहाँ है ?'
'क्यों, तुम्हारे चचा साहब नहीं हैं ?'
'हाँ, चचा साहब का घर है, मेरा घर अब कहीं नहीं है। बनने की कभी आशा थी, पर आप लोगों ने वह भी तोड़ दी।'
'हमारा इसमें क्या दोष था भैया ? लड़की का ब्याह तो कहीं-न-कहीं करना था। तुम्हारे चचाजी ने तो हमें मँझधार में छोड़ दिया था। भगवान् ही ने उबारा। क्या अभी स्टेशन से चले आ रहे हो ? तब तो अभी कुछ खाया भी न होगा।'
'हाँ, थोड़ा-सा जहर लाकर दीजिए, यही मेरे लिए सबसे अच्छी दवा है।'
वृद्धा विस्मित होकर मुँह ताकने लगी। मुझे तारा से कितना प्रेम था, वह बेचारी क्या जानती थी ? मैंने उसी विरक्ति के साथ फिर कहा, 'ज़ब आप लोगों ने मुझे मार डालने ही का निश्चय कर लिया, तो अब देर क्यों करती हैं ? आप मेरे साथ यह दगा करेंगी यह मैं न समझता था। खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। चचा और बाप की आँखों से गिरकर मैं शायद आपकी आँखों में भी न जँचता। बुढ़िया ने मेरी तरफ शिकायत की नजरों से देखकर कहा, तुम हमको इतना स्वार्थी समझते हो, बेटा।'
मैंने जले हुए ह्रदय से कहा, 'अब तक तो न समझता था लेकिन परिस्थिति ने ऐसा समझने को मजबूर किया। मेरे खून का प्यासा दुश्मन भी मेरे ऊपर इससे घातक वार न कर सकता। मेरा खून आप ही की गरदन पर होगा।'
'तुम्हारे चचाजी ने ही तो इन्कार कर दिया ?'
'आप लोगों ने मुझसे भी कुछ पूछा,, मुझसे भी कुछ कहा,मुझे भी कुछ कहने का अवसर दिया ? आपने तो ऐसी निगाहें फेरीं जैसे आप दिल से यही चाहती थीं। मगर अब आपसे शिकायत क्यों करूँ ? तारा खुश रहे, मेरे लिए यही बहुत है।'
'तो बेटा, तुमने भी तो कुछ नहीं लिखा; अगर तुम एक पुरजा भी लिख देते, तो हमें तस्कीन हो जाती। हमें क्या मालूम था कि तुम तारा को इतना प्यार करते हो। हमसे जरूर भूल हुई; मगर उससे बड़ी भूल तुमसे हुई। अब मुझे मालूम हुआ कि तारा क्यों बराबर डाकिये को पूछती रहती थी। अभी कल वह दिन-भर डाकिये की राह देखती रही। जब तुम्हारा कोई खत नहीं आया, तब वह निराश हो गयी। बुला दूं उसे ? मिलना चाहते हो ?'
मैंने चारपाई से उठकर कहा, 'नहीं-नहीं, उसे मत बुलाइए। मैं अब उसे नहीं देख सकता। उसे देखकर मैं न-जाने क्या कर बैठूँ।' यह कहता हुआ मैं चल पड़ा। तारा की माँ ने कई बार पुकारा पर मैंने पीछे फिर कर भी न देखा।

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